पुरखों से चली आती है ये नक़्ल-ए-मकानी
अब मुझ से भी ख़ाली मिरा घर होने लगा है
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फ़राख़-दस्त का ये हुस्न-ए-तंग-दस्ती है
अपनी तस्वीर के इक रुख़ को निहाँ रखता है
चले थे जिस की तरफ़ वो निशान ख़त्म हुआ
ये दौर है जो तुम्हारा रहेगा ये भी नहीं
हम-सरी उन की जो करना चाहे
मेरी पहचान बताने का सवाल आया जब
एक इक लफ़्ज़ से मअनी की किरन फूटती है
हर एक साँस मुझे खींचती है उस की तरफ़
कहाँ तक उस की मसीहाई का शुमार करूँ
मैं तिरे वास्ते आईना था
रखता नहीं है दश्त सरोकार आब से
पेड़ अगर ऊँचा मिलता है