रहेगा आईने की तरह आब पर क़ाएम
नदी में डूबने वाला नहीं किनारा मिरा
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जो मुझ पे भारी हुई एक रात अच्छी तरह
अपनी क़िस्मत का बुलंदी पे सितारा देखूँ
हम-सरी उन की जो करना चाहे
न जाने क़ैद में हूँ या हिफ़ाज़त में किसी की
दिल ने तमन्ना की थी जिस की बरसों तक
पहले चिंगारी उड़ा लाई हवा
दूसरा कोई तमाशा न था ज़ालिम के पास
झाँकता भी नहीं सूरज मिरे घर के अंदर
ऐ मिरे पायाब दरिया तुझ को ले कर क्या करूँ
रखता नहीं है दश्त सरोकार आब से
रख दिया वक़्त ने आईना बना कर मुझ को
किसी ने भेज कर काग़ज़ की कश्ती