दिल ने तमन्ना की थी जिस की बरसों तक
ऐसे ज़ख़्म को अच्छा कर के बैठ गए
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शक्ल सहरा की हमेशा जानी-पहचानी रहे
पहले चिंगारी उड़ा लाई हवा
रखता नहीं है दश्त सरोकार आब से
हम-सरी उन की जो करना चाहे
नायाब चीज़ कौन सी बाज़ार में नहीं
कैसा इंसाँ तरस रहा है जीने को
हिसार-ए-जिस्म मिरा तोड़-फोड़ डालेगा
ताबीरों से बंद क़बा-ए-ख़्वाब खुले
कितना भी रंग-ओ-नस्ल में रखते हों इख़्तिलाफ़
किसी की राह में आने की ये भी सूरत है
साँसों के आने जाने से लगता है
बढ़ा जब उस की तवज्जोह का सिलसिला कुछ और