कितना भी रंग-ओ-नस्ल में रखते हों इख़्तिलाफ़
फिर भी खड़े हुए हैं शजर इक क़तार में
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Habib Jalib
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अपनी तस्वीर के इक रुख़ को निहाँ रखता है
अब जो आज़ाद हुए हैं तो ख़याल आया है
झाँकता भी नहीं सूरज मिरे घर के अंदर
ये लोग किस की तरफ़ देखते हैं हसरत से
अपनी क़िस्मत का बुलंदी पे सितारा देखूँ
नहीं है बहर-ओ-बर में ऐसा मेरे यार कोई
मिरी सिफ़ात का जब उस ने ए'तिराफ़ किया
पेड़ अगर ऊँचा मिलता है
आगे आगे शर फैलाता जाता हूँ
सहरा जंगल सागर पर्बत
आता था जिस को देख के तस्वीर का ख़याल