किसी ने भेज कर काग़ज़ की कश्ती
बुलाया है समुंदर पार मुझ को
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अपनी क़िस्मत का बुलंदी पे सितारा देखूँ
ऐ मिरे पायाब दरिया तुझ को ले कर क्या करूँ
पहले चिंगारी उड़ा लाई हवा
कुछ ऐसे देखता है वो मुझे कि लगता है
ताबीरों से बंद क़बा-ए-ख़्वाब खुले
रख दिया वक़्त ने आईना बना कर मुझ को
चाहता है वो कि दरिया सूख जाए
न मिरा ज़ोर न बस अब क्या है
मेरी कश्ती को डुबो कर चैन से बैठे न तू
हुस्न-ए-अमल में बरकतें होती हैं बे-शुमार
मुझे ग़ुबार उड़ाता हुआ सवार लगा
हम-सरी उन की जो करना चाहे