हम-सरी उन की जो करना चाहे
उस को सूली पर चढ़ा देते हैं
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रखता नहीं है दश्त सरोकार आब से
पस्त-ओ-बुलंद में जो तुझे रिश्ता चाहिए
न मिरा ज़ोर न बस अब क्या है
दूसरा कोई तमाशा न था ज़ालिम के पास
यूँही बुनियाद का दर्जा नहीं मिलता किसी को
मिली राह वो कि फ़रार का न पता चला
हुस्न-ए-अमल में बरकतें होती हैं बे-शुमार
माज़ी! तुझ से ''हाल'' मिरा शर्मिंदा है
मैं तिरे वास्ते आईना था
गर्मियों भर मिरे कमरे में पड़ा रहता है
ज़बान अपनी बदलने पे कोई राज़ी नहीं
झाँकता भी नहीं सूरज मिरे घर के अंदर