ज़बान अपनी बदलने पे कोई राज़ी नहीं
वही जवाब है उस का वही सवाल मिरा
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पहले उस ने मुझे चुनवा दिया दीवार के साथ
उस ने जब दरवाज़ा मुझ पर बंद किया
हम-सरी उन की जो करना चाहे
क़दमों से मेरे गर्द-ए-सफ़र कौन ले गया
साँसों के आने जाने से लगता है
ताबीरों से बंद क़बा-ए-ख़्वाब खुले
रख दिया वक़्त ने आईना बना कर मुझ को
अब जो आज़ाद हुए हैं तो ख़याल आया है
किसी ने भेज कर काग़ज़ की कश्ती
माज़ी! तुझ से ''हाल'' मिरा शर्मिंदा है
एक दिन दरिया मकानों में घुसा
पहले चिंगारी उड़ा लाई हवा