उस ने जब दरवाज़ा मुझ पर बंद किया
मुझ पर उस की महफ़िल के आदाब खुले
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हिसार-ए-जिस्म मिरा तोड़-फोड़ डालेगा
अब मिरे गिर्द ठहरती नहीं दीवार कोई
यूँही बुनियाद का दर्जा नहीं मिलता किसी को
ऐ मिरे पायाब दरिया तुझ को ले कर क्या करूँ
पुरखों से चली आती है ये नक़्ल-ए-मकानी
कैसा इंसाँ तरस रहा है जीने को
देखने सुनने का मज़ा जब है
अपनी तस्वीर के इक रुख़ को निहाँ रखता है
न जाने क़ैद में हूँ या हिफ़ाज़त में किसी की
दिल ने तमन्ना की थी जिस की बरसों तक
आता था जिस को देख के तस्वीर का ख़याल
ज़बान अपनी बदलने पे कोई राज़ी नहीं