यारों ने मेरी राह में दीवार खींच कर
मशहूर कर दिया कि मुझे साया चाहिए
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कुछ ऐसे देखता है वो मुझे कि लगता है
पुरखों से चली आती है ये नक़्ल-ए-मकानी
साँसों के आने जाने से लगता है
बर्क़ का ठीक अगर निशाना हो
झाँकता भी नहीं सूरज मिरे घर के अंदर
फ़राख़-दस्त का ये हुस्न-ए-तंग-दस्ती है
ठहर ठहर के मिरा इंतिज़ार करता चल
राह से मुझ को हटा कर ले गया
मेरे लब तक जो न आई वो दुआ कैसी थी
अब मिरे गिर्द ठहरती नहीं दीवार कोई
शक्ल सहरा की हमेशा जानी-पहचानी रहे
कितना भी रंग-ओ-नस्ल में रखते हों इख़्तिलाफ़