अब मिरे गिर्द ठहरती नहीं दीवार कोई
बंदिशें हार गईं बे-सर-ओ-सामानी से
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ये दौर है जो तुम्हारा रहेगा ये भी नहीं
मिली राह वो कि फ़रार का न पता चला
अब और देर न कर हश्र बरपा करने में
बढ़ा जब उस की तवज्जोह का सिलसिला कुछ और
मुझे ग़ुबार उड़ाता हुआ सवार लगा
फ़राख़-दस्त का ये हुस्न-ए-तंग-दस्ती है
जो उस तरफ़ से इशारा कभी किया उस ने
कोई इक ज़ाइक़ा नहीं मिलता
आता था जिस को देख के तस्वीर का ख़याल
कहीं कहीं से पुर-असरार हो लिया जाए
रखता नहीं है दश्त सरोकार आब से
मेरी पहचान बताने का सवाल आया जब