आता था जिस को देख के तस्वीर का ख़याल
अब तो वो कील भी मिरी दीवार में नहीं
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अब जो आज़ाद हुए हैं तो ख़याल आया है
हैं और कई रेत के तूफ़ाँ मिरे आगे
पस्त-ओ-बुलंद में जो तुझे रिश्ता चाहिए
हिसार-ए-जिस्म मिरा तोड़-फोड़ डालेगा
गर्मियों भर मिरे कमरे में पड़ा रहता है
अब मिरे गिर्द ठहरती नहीं दीवार कोई
मैं तिरे वास्ते आईना था
एक इक लफ़्ज़ से मअनी की किरन फूटती है
शक्ल सहरा की हमेशा जानी-पहचानी रहे
न जाने क़ैद में हूँ या हिफ़ाज़त में किसी की
पहले उस ने मुझे चुनवा दिया दीवार के साथ
रहेगा आईने की तरह आब पर क़ाएम