एक इक लफ़्ज़ से मअनी की किरन फूटती है
रौशनी में पढ़ा जाता है सहीफ़ा मेरा
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ज़बान अपनी बदलने पे कोई राज़ी नहीं
उबल पड़ा यक-ब-यक समुंदर तो मैं ने देखा
अपनी क़िस्मत का बुलंदी पे सितारा देखूँ
पहले उस ने मुझे चुनवा दिया दीवार के साथ
अब मिरे गिर्द ठहरती नहीं दीवार कोई
रख दिया वक़्त ने आईना बना कर मुझ को
चले थे जिस की तरफ़ वो निशान ख़त्म हुआ
यूँही बुनियाद का दर्जा नहीं मिलता किसी को
रखता नहीं है दश्त सरोकार आब से
मेरी पहचान बताने का सवाल आया जब
मिरी सिफ़ात का जब उस ने ए'तिराफ़ किया