चले थे जिस की तरफ़ वो निशान ख़त्म हुआ
सफ़र अधूरा रहा आसमान ख़त्म हुआ
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हुस्न-ए-अमल में बरकतें होती हैं बे-शुमार
जो मुझ पे भारी हुई एक रात अच्छी तरह
हर एक साँस मुझे खींचती है उस की तरफ़
जो उस तरफ़ से इशारा कभी किया उस ने
सहरा जंगल सागर पर्बत
अपनी क़िस्मत का बुलंदी पे सितारा देखूँ
यूँही बुनियाद का दर्जा नहीं मिलता किसी को
जैसे कोई काट रहा है जाल मिरा
ये दौर है जो तुम्हारा रहेगा ये भी नहीं
पेड़ अगर ऊँचा मिलता है
ये लोग किस की तरफ़ देखते हैं हसरत से
हिसार-ए-जिस्म मिरा तोड़-फोड़ डालेगा