हर एक साँस मुझे खींचती है उस की तरफ़
ये कौन मेरे लिए बे-क़रार रहता है
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मेरी पहचान बताने का सवाल आया जब
रखता नहीं है दश्त सरोकार आब से
सहरा जंगल सागर पर्बत
हैं और कई रेत के तूफ़ाँ मिरे आगे
अब जो आज़ाद हुए हैं तो ख़याल आया है
अब और देर न कर हश्र बरपा करने में
हिसार-ए-जिस्म मिरा तोड़-फोड़ डालेगा
चले थे जिस की तरफ़ वो निशान ख़त्म हुआ
ताबीरों से बंद क़बा-ए-ख़्वाब खुले
कोई इक ज़ाइक़ा नहीं मिलता
झलकती है मिरी आँखों में बेदारी सी कोई
राह से मुझ को हटा कर ले गया