हुस्न-ए-अमल में बरकतें होती हैं बे-शुमार
पत्थर भी तोड़िए तो सलीक़े से तोड़िए
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किसी की राह में आने की ये भी सूरत है
रहेगा आईने की तरह आब पर क़ाएम
पुरखों से चली आती है ये नक़्ल-ए-मकानी
जो मुझ पे भारी हुई एक रात अच्छी तरह
नायाब चीज़ कौन सी बाज़ार में नहीं
माज़ी! तुझ से ''हाल'' मिरा शर्मिंदा है
मुझे ग़ुबार उड़ाता हुआ सवार लगा
मेरे लब तक जो न आई वो दुआ कैसी थी
नहीं है बहर-ओ-बर में ऐसा मेरे यार कोई
अपनी क़िस्मत का बुलंदी पे सितारा देखूँ
कोई इक ज़ाइक़ा नहीं मिलता
कैसा इंसाँ तरस रहा है जीने को