एक दिन दरिया मकानों में घुसा
और दीवारें उठा कर ले गया
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आगे आगे शर फैलाता जाता हूँ
कितना भी रंग-ओ-नस्ल में रखते हों इख़्तिलाफ़
ज़बान अपनी बदलने पे कोई राज़ी नहीं
ये दौर है जो तुम्हारा रहेगा ये भी नहीं
अब मिरे गिर्द ठहरती नहीं दीवार कोई
रखता नहीं है दश्त सरोकार आब से
पहले उस ने मुझे चुनवा दिया दीवार के साथ
कहीं कहीं से पुर-असरार हो लिया जाए
जो मुझ पे भारी हुई एक रात अच्छी तरह
ताबीरों से बंद क़बा-ए-ख़्वाब खुले
राह से मुझ को हटा कर ले गया
शक्ल सहरा की हमेशा जानी-पहचानी रहे