दूसरा कोई तमाशा न था ज़ालिम के पास
वही तलवार थी उस की वही सर था मेरा
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शक्ल सहरा की हमेशा जानी-पहचानी रहे
आगे आगे शर फैलाता जाता हूँ
कहीं कहीं से पुर-असरार हो लिया जाए
पुरखों से चली आती है ये नक़्ल-ए-मकानी
हिसार-ए-जिस्म मिरा तोड़-फोड़ डालेगा
न जाने क़ैद में हूँ या हिफ़ाज़त में किसी की
ये दौर है जो तुम्हारा रहेगा ये भी नहीं
ये लोग किस की तरफ़ देखते हैं हसरत से
मैं तिरे वास्ते आईना था
कुछ ऐसे देखता है वो मुझे कि लगता है
यूँही बुनियाद का दर्जा नहीं मिलता किसी को
झाँकता भी नहीं सूरज मिरे घर के अंदर