गर्मियों भर मिरे कमरे में पड़ा रहता है
देख कर रुख़ मुझे सूरज का ये घर लेना था
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सहरा जंगल सागर पर्बत
मुझे ग़ुबार उड़ाता हुआ सवार लगा
मैं तिरे वास्ते आईना था
न जाने क़ैद में हूँ या हिफ़ाज़त में किसी की
ये लोग किस की तरफ़ देखते हैं हसरत से
पस्त-ओ-बुलंद में जो तुझे रिश्ता चाहिए
झाँकता भी नहीं सूरज मिरे घर के अंदर
मिली राह वो कि फ़रार का न पता चला
हिसार-ए-जिस्म मिरा तोड़-फोड़ डालेगा
उबल पड़ा यक-ब-यक समुंदर तो मैं ने देखा
पुरखों से चली आती है ये नक़्ल-ए-मकानी