अपनी तस्वीर के इक रुख़ को निहाँ रखता है
ये चराग़ अपना धुआँ जाने कहाँ रखता है
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मुझे ग़ुबार उड़ाता हुआ सवार लगा
सहरा जंगल सागर पर्बत
मेरी पहचान बताने का सवाल आया जब
रखता नहीं है दश्त सरोकार आब से
न मिरा ज़ोर न बस अब क्या है
मिली राह वो कि फ़रार का न पता चला
चले थे जिस की तरफ़ वो निशान ख़त्म हुआ
कितना भी रंग-ओ-नस्ल में रखते हों इख़्तिलाफ़
गर्मियों भर मिरे कमरे में पड़ा रहता है
पहले उस ने मुझे चुनवा दिया दीवार के साथ
हर एक साँस मुझे खींचती है उस की तरफ़
ज़बान अपनी बदलने पे कोई राज़ी नहीं