अंधेरे Poetry (page 4)
फ़स्ल-ए-गुल ख़ाक हुई जब तो सदा दी तू ने
शहज़ाद अहमद
हुसैन! तोमी कोथाए
शहनाज़ नबी
सूरज तिरी दहलीज़ में अटका हुआ निकला
शहनवाज़ ज़ैदी
मैं ज़हर रही हर शाम रही
शाहिदा तबस्सुम
लम्स आहट के हवाओं के निशाँ कुछ भी नहीं
शाहिदा हसन
सह-पहर ही से कोई शक्ल बनाती है ये शाम
शाहिद लतीफ़
जुनून-ए-शौक़ की राहों में जब अपने क़दम निकले
शाहिद भोपाली
कुछ नहीं लिक्खा हुआ फिर भी पढ़ा जाता है क्या
शाहीन अब्बास
सूरज का शहर
शहाब जाफ़री
दुश्मनी लर्ज़ां है यारो दोस्ती के सामने
शफ़ीउल्लाह राज़
शब-चराग़ कर मुझ को ऐ ख़ुदा अँधेरे में
शबनम रूमानी
माँगा था हम ने दिन वो सियह रात दे गया
शबाब ललित
नफ़स नफ़स पे नया सोज़-ए-आगही रखना
शायर लखनवी
इक तमन्ना कि सहर से कहीं खो जाती है
शानुल हक़ हक़्क़ी
खरी बातें ब-अंदाज़-ए-सुख़न कह दूँ तो क्या होगा
शाद आरफ़ी
शायद जगह नसीब हो उस गुल के हार में
सीमाब अकबराबादी
मैं ने कहा था मुझ को अँधेरे का ख़ौफ़ है
सीमा ग़ज़ल
रस्म ही शहर-ए-तमन्ना से वफ़ा की उठ जाए
सय्यद एहतिशाम हुसैन
फ़ता-कल्लमू तअ'रफू
सत्यपाल आनंद
कहाँ कहाँ से निगह उस को ढूँड लाए है
सत्य नन्द जावा
''एक नज़्म कहीं से भी शुरूअ हो सकती है''
सरवत हुसैन
ख़ता उस की मुआफ़ी से बड़ी है
सदार आसिफ़
परिंदे की आँख खुल जाती है
सारा शगुफ़्ता
ख़रगोश की सरगुज़िश्त
साक़ी फ़ारुक़ी
यूँ मिरे पास से हो कर न गुज़र जाना था
साक़ी फ़ारुक़ी
वो सख़ी है तो किसी रोज़ बुला कर ले जाए
साक़ी फ़ारुक़ी
छुप के मिलने आ जाए रौशनी की जुरअत क्या
साक़ी फ़ारुक़ी
मंज़िलें लाख कठिन आएँ गुज़र जाऊँगा
साक़ी अमरोहवी
हक़-नवाई को ज़माने की ज़बाँ कौन करे
समद अंसारी
उसे भुला न सकी नक़्श इतने गहरे थे
सलमा शाहीन
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