बाज़ार Poetry (page 14)

जादा-ए-रह ख़ुर को वक़्त-ए-शाम है तार-ए-शुआअ'

ग़ालिब

हुस्न-ए-मह गरचे ब-हंगाम-ए-कमाल अच्छा है

ग़ालिब

हुजूम-ए-नाला हैरत आजिज़-ए-अर्ज़-ए-यक-अफ़्ग़ँ है

ग़ालिब

है बस-कि हर इक उन के इशारे में निशाँ और

ग़ालिब

दिया है दिल अगर उस को बशर है क्या कहिए

ग़ालिब

बर्शिकाल-ए-गिर्या-ए-आशिक़ है देखा चाहिए

ग़ालिब

आमद-ए-ख़त से हुआ है सर्द जो बाज़ार-ए-दोस्त

ग़ालिब

ख़ुद लफ़्ज़ पस-ए-लफ़्ज़ कभी देख सके भी

फ़ुज़ैल जाफ़री

कैसा मकान साया-ए-दीवार भी नहीं

फ़ुज़ैल जाफ़री

कैसा मकान साया-ए-दीवार भी नहीं

फ़ुज़ैल जाफ़री

हुस्न-ए-फ़ितरत के अमीं क़ातिल-ए-किरदार न बन

फ़ितरत अंसारी

इश्क़ की मायूसियों में सोज़-ए-पिन्हाँ कुछ नहीं

फ़िराक़ गोरखपुरी

हो के सर-ता-ब-क़दम आलम-ए-असरार चला

फ़िराक़ गोरखपुरी

तमाशा फिर सर-ए-बाज़ार करना

फ़य्याज़ तहसीन

आँखों में न ज़ुल्फ़ों में न रुख़्सार में देखें

फ़ातिमा हसन

इश्क़ हूँ जुरअत-ए-इज़हार भी कर सकता हूँ

फ़रताश सय्यद

मातम-ए-नीम-ए-शब

फ़ारूक़ नाज़की

और मैं चुप रहा

फ़ारूक़ नाज़की

सब लज़्ज़तें विसाल की बेकार करते हो

फ़रहत एहसास

नहीं देखता दिन जिसे चश्म-ए-शब देखती है

फ़रहत एहसास

मिला है जिस्म कि उस का गुमाँ मिला है मुझे

फ़रहत एहसास

मैं शहरी हूँ मगर मेरी बयाबानी नहीं जाती

फ़रहत एहसास

किस सलीक़े से वो मुझ में रात-भर रह कर गया

फ़रहत एहसास

ख़ूब होनी है अब इस शहर में रुस्वाई मिरी

फ़रहत एहसास

जो इश्क़ चाहता है वो होना नहीं है आज

फ़रहत एहसास

जिस को जैसा भी है दरकार उसे वैसा मिल जाए

फ़रहत एहसास

हुई इक ख़्वाब से शादी मिरी तन्हाई की

फ़रहत एहसास

घर में चीज़ें बढ़ रही हैं ज़िंदगी कम हो रही है

फ़रहत एहसास

इक हवा सा मिरे सीने से मिरा यार गया

फ़रहत एहसास

एक ग़ज़ल कहते हैं इक कैफ़िय्यत तारी कर लेते हैं

फ़रहत एहसास

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