मूर्ति Poetry (page 2)

जहाँ कुछ लोग दीवाने बने हैं

यज़दानी जालंधरी

रू-ब-रू बुत के दुआ की भूल हो जाए तो फिर

याक़ूब तसव्वुर

हर एक गाम पे इक बुत बनाना चाहा है

याक़ूब तसव्वुर

नहीं मा'लूम अब की साल मय-ख़ाने पे क्या गुज़रा

इनामुल्लाह ख़ाँ यक़ीन

कार-ए-दीं उस बुत के हाथों हाए अबतर हो गया

इनामुल्लाह ख़ाँ यक़ीन

रौशन तमाम काबा ओ बुत-ख़ाना हो गया

यगाना चंगेज़ी

साकिन-ए-दैर हूँ इक बुत का हूँ बंदा ब-ख़ुदा

वज़ीर अली सबा लखनवी

सज दिया हैरत-ए-उश्शाक़ ने इस बुत का मकाँ

वज़ीर अली सबा लखनवी

महशर का हमें क्या ग़म इस्याँ किसे कहते हैं

वज़ीर अली सबा लखनवी

ऐ सनम सब हैं तिरे हाथों से नालाँ आज-कल

वज़ीर अली सबा लखनवी

ऐ सबा जज़्ब पे जिस दम दिल-ए-नाशाद आया

वज़ीर अली सबा लखनवी

अदू-ए-जाँ बुत-ए-बे-बाक निकला

वज़ीर अली सबा लखनवी

आया जो मौसम-ए-गुल तो ये हिसाब होगा

वज़ीर अली सबा लखनवी

आप अपनी बेवफ़ाई देखिए

वज़ीर अली सबा लखनवी

क़दम यूँ बे-ख़तर हो कर न मय-ख़ाने में रख देना

वासिफ़ देहलवी

इज़्ज़त उन्हें मिली वही आख़िर बड़े रहे

वासिफ़ देहलवी

तुझ से मिल कर दिल में रह जाती है अरमानों की बात

वामिक़ जौनपुरी

शीशा उस का अजीब है ख़ुद ही

वामिक़ जौनपुरी

'मुहिब' तुम बुत-परस्ती को न छोड़ो

वलीउल्लाह मुहिब

काबा ओ दैर में जब वो बुत-ए-काफ़िर न मिला

वलीउल्लाह मुहिब

वाँ जो कुछ का'बे में असरार है अल्लाह अल्लाह

वलीउल्लाह मुहिब

उस बुत ने गुलाबी जो उठा मुँह से लगाई

वलीउल्लाह मुहिब

तुम जानते हो किस लिए वो मुझ से गया लड़

वलीउल्लाह मुहिब

जी चाहे का'बे जाओ जी चाहे बुत को पूजो

वलीउल्लाह मुहिब

है मिरे पहलू में और मुझ को नज़र आता नहीं

वलीउल्लाह मुहिब

मग़्ज़-ए-बहार इस बरस उस बिन बचा न था

वली उज़लत

मत ग़ुस्से के शो'ले सूँ जलते कूँ जलाती जा

वली मोहम्मद वली

अब नींद कहाँ आँखों में शोला सा भरा है

वकील अख़्तर

लबालब कर दे ऐ साक़ी है ख़ाली मेरा पैमाना

वाजिद अली शाह अख़्तर

ऐ नसीम-ए-सहरी हम तो हवा होते हैं

वाजिद अली शाह अख़्तर

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