काबा ओ दैर में जब वो बुत-ए-काफ़िर न मिला
ब-ख़ुदा हम ने बहुत नाला-ए-नाक़ूस किए
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मैं जीते-जी तलक रहूँ मरहून आप का
उधर वो बे-मुरव्वत बेवफ़ा बे-रहम क़ातिल है
अश्क-बारी का मिरी आँखों ने ये बाँधा है झाड़
कुछ न देखा किसी मकान में हम
हर घड़ी वहम में गुज़रे हैं नए अख़बारात
ग़ौर कर देखो तो ये इक तार का बिस्तार है
सनम ने जब लब-ए-गौहर-फ़शान खोल दिए
शब-ए-फ़िराक़ न काटे कटे है क्या कीजे
चराग़-ए-का'बा-ओ-दैर एक सा है चश्म-ए-हक़-बीं में
मिलती है उसे गौहर-ए-शब-ताब की मीरास
ऐ दिल आता है चमन में वो शराबी तू पहुँच
बे-इश्क़ जितनी ख़ल्क़ है इंसाँ की शक्ल में