चराग़-ए-का'बा-ओ-दैर एक सा है चश्म-ए-हक़-बीं में
'मुहिब' झगड़ा है कोरी के सबब शैख़ ओ बरहमन का
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राग अपना गा हमारा ज़िक्र मत कर ऐ रक़ीब
है मिरे पहलू में और मुझ को नज़र आता नहीं
बे-इश्क़ जितनी ख़ल्क़ है इंसाँ की शक्ल में
रक़ीब जम के ये बैठा कि हम उठे नाचार
हम हवा-ए-वस्ल में याँ तक फिरे
शब-ए-फ़िराक़ न काटे कटे है क्या कीजे
शैख़ है तुझ को ही इंकार सनम मेरे से
ब-तस्ख़ीर-बुताँ तस्बीह क्यूँ ज़ाहिद फिराते हैं
ग़ौर कर देखो तो ये इक तार का बिस्तार है
यूँ घर से मोहब्बत के क्या भाग चले जाना
दैर में का'बे में मयख़ाने में और मस्जिद में
जौन से रस्ते वो हो निकले उधर पहरों तलक