ब-तस्ख़ीर-बुताँ तस्बीह क्यूँ ज़ाहिद फिराते हैं
ये लोहे के चने वल्लाह आशिक़ ही चबाते हैं
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ऐ बंदा-परवर इतना लाज़िम है क्या तकल्लुफ़
साक़ी हमें क़सम है तिरी चश्म-ए-मस्त की
ग़ौर कर देखो तो ये इक तार का बिस्तार है
ऐ दिल आता है चमन में वो शराबी तू पहुँच
ख़ाना-ए-दिल का जो तवाइफ़ है
यूँ घर से मोहब्बत के क्या भाग चले जाना
काबा ओ दैर में जब वो बुत-ए-काफ़िर न मिला
तमाम ख़ल्क़-ए-ख़ुदा ज़ेर-ए-आसमाँ की समेट
मा'रके में इश्क़ के सर से गुज़रने से न डर
उस के कूचे ही में आ निकलूँ हूँ जाऊँ जिस तरफ़
दीं से पैदा कुफ़्र है और नूर शक्ल-ए-नार है
शब-ए-फ़िराक़ न काटे कटे है क्या कीजे