ऐ बंदा-परवर इतना लाज़िम है क्या तकल्लुफ़
उठिए ग़रीब-ख़ाने चलिए बिला-तकल्लुफ़
Gulzar
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पहचाने तू हर-दम वही हर आन वही है
बुलबुल वो गुल है ख़्वाब में तू गा के मत जगा
देखता कुछ हूँ ध्यान में कुछ है
नक़्काश-ए-अज़ल ने तो सर-ए-काग़ज़-ए-बाद आह
ये जूँ जूँ वा'दे के दिन रात पड़ते जाते हैं
लाला-रू तुम ग़ैर के पाले पड़े
'मुहिब' तुम बुत-परस्ती को न छोड़ो
शैख़ कहते हैं मुझे दैर न जा काबा चल
मा'रके में इश्क़ के सर से गुज़रने से न डर
अरे ओ ख़ाना-आबाद इतनी ख़ूँ-रेज़ी ये क़त्ताली
वहीं जी उठते हैं मुर्दे ये क्या ठोकर से छूना है
है मिरे पहलू में और मुझ को नज़र आता नहीं