नक़्काश-ए-अज़ल ने तो सर-ए-काग़ज़-ए-बाद आह
क्या ख़ाक लिखा उम्र की ता'मीर का नक़्शा
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है मिरे पहलू में और मुझ को नज़र आता नहीं
मा'रके में इश्क़ के सर से गुज़रने से न डर
लाला-रू तुम ग़ैर के पाले पड़े
ग़ौर कर देखो तो ये इक तार का बिस्तार है
काबा ओ दैर में जब वो बुत-ए-काफ़िर न मिला
अरे ओ ख़ाना-आबाद इतनी ख़ूँ-रेज़ी ये क़त्ताली
ख़त का ये जवाब आया कि क़ासिद गया जी से
काबा जाने की हवस शैख़ हमें भी है वले
मोहब्बत से तरीक़-ए-दोस्ती से चाह से माँगो
ब-तस्ख़ीर-बुताँ तस्बीह क्यूँ ज़ाहिद फिराते हैं
का'बे में वही ख़ुद है वही दैर में है आप