ख़त का ये जवाब आया कि क़ासिद गया जी से
सर एक तरफ़ लोटे है और एक तरफ़ धड़
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बुलबुल वो गुल है ख़्वाब में तू गा के मत जगा
फूलों की सेज दोस्त की ख़ातिर 'मुहिब' बिछाओ
दर्स-ए-इल्म-ए-इश्क़ से वाक़िफ़ नहीं मुतलक़ फ़क़ीह
किया बाग़-ए-जहाँ में नाम उन का सर्व कह कह कर
ये दाढ़ी मोहतसिब ने दुख़्त-ए-रज़ के फाड़ खाने को
ऐ दिल तुझे करनी है अगर इश्क़ से बैअ'त
जो मरीज़ इश्क़ के हैं उन को शिफ़ा है कि नहीं
ग़म-ए-जाँ तू है अगर राहत-ए-जाँ है तू है
गिरते हैं दुख से तेरी जुदाई के वर्ना ख़ैर
है मिरे पहलू में और मुझ को नज़र आता नहीं
जब नशे में हम ने कुछ मीठे की ख़्वाहिश उस से की
ब-मअ'नी कुफ़्र से इस्लाम कब ख़ाली है ऐ ज़ाहिद