दर्स-ए-इल्म-ए-इश्क़ से वाक़िफ़ नहीं मुतलक़ फ़क़ीह
नहव ही में महव है या सर्फ़ ही में सर्फ़ है
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किया बाग़-ए-जहाँ में नाम उन का सर्व कह कह कर
जौन से रस्ते वो हो निकले उधर पहरों तलक
जो मरीज़ इश्क़ के हैं उन को शिफ़ा है कि नहीं
देखा जो कुछ जहाँ में कोई दम ये सब नहीं
उधर वो बे-मुरव्वत बेवफ़ा बे-रहम क़ातिल है
मा'रके में इश्क़ के सर से गुज़रने से न डर
शैख़ कहते हैं मुझे दैर न जा काबा चल
किया है क़त्अ रिश्ता सुब्हा-ओ-ज़ुन्नार का हम ने
शैख़ है तुझ को ही इंकार सनम मेरे से
सनम ने जब लब-ए-गौहर-फ़शान खोल दिए
जिसे गर्म-इख़्तिलाती की लगा दे दिल में तू आतिश
फ़स्ल ख़िज़ाँ में बाग़-ए-मज़ाहिब की की जो सैर