फ़स्ल ख़िज़ाँ में बाग़-ए-मज़ाहिब की की जो सैर
है हर तरफ़ बहार गुल-ए-जा'फ़री से आज
Rahat Indori
Habib Jalib
Anwar Masood
Gulzar
Parveen Shakir
Javed Akhtar
Allama Iqbal
Mohsin Naqvi
Ahmad Faraz
Mir Taqi Mir
Faiz Ahmad Faiz
Wasi Shah
Love Poetry
Funny Poetry
Sad Poetry
Rain Poetry
Sharabi Poetry
Friends Poetry
(462) Peoples Rate This
जो अज़-ख़ुद-रफ़्ता है गुमराह है वो रहनुमा मेरा
ये दाढ़ी मोहतसिब ने दुख़्त-ए-रज़ के फाड़ खाने को
लाला-रू तुम ग़ैर के पाले पड़े
उस बुत ने गुलाबी जो उठा मुँह से लगाई
काबा ओ दैर में जब वो बुत-ए-काफ़िर न मिला
शैख़ कहते हैं मुझे दैर न जा काबा चल
बे-इश्क़ जितनी ख़ल्क़ है इंसाँ की शक्ल में
इश्क़ जब दख़्ल करे है दिल-ए-इंसाँ में 'मुहिब'
पहले सफ़-ए-उश्शाक़ में मेरा ही लहू चाट
गिरते हैं दुख से तेरी जुदाई के वर्ना ख़ैर
दर्स-ए-इल्म-ए-इश्क़ से वाक़िफ़ नहीं मुतलक़ फ़क़ीह
जलता है कि ख़ुर्शीद की इक रोटी हो तय्यार