शैख़ कहते हैं मुझे दैर न जा काबा चल
बरहमन कहते हैं क्यूँ याँ भी ख़ुदा है कि नहीं
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तुम गाओ अपने राग को उस पास वाइ'ज़ो
बे-इश्क़ जितनी ख़ल्क़ है इंसाँ की शक्ल में
मय-कदे में मस्त हैं और शोर उन का हाव-हू
ख़त का ये जवाब आया कि क़ासिद गया जी से
हर घड़ी वहम में गुज़रे हैं नए अख़बारात
मा'रके में इश्क़ के सर से गुज़रने से न डर
दुनिया में क्या किसी से सरोकार है हमें
उस बुत ने गुलाबी जो उठा मुँह से लगाई
सुख़न जिन के कि सूरत जूँ गुहर है बहर-ए-मअ'नी में
पहले सफ़-ए-उश्शाक़ में मेरा ही लहू चाट
अश्क-बारी से ग़म-ओ-दर्द की खेती-बाड़ी
ख़ाना-ए-दिल का जो तवाइफ़ है