शोर रखते हैं जहाँ में जिस क़दर सब्ज़ान-ए-हिंद
बे-नमक है उन के आगे हुस्न और अतराफ़ का
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मय-ए-गुल-गूँ के जो शीशे में परी रहती है
शब-ए-फ़िराक़ न काटे कटे है क्या कीजे
चराग़-ए-का'बा-ओ-दैर एक सा है चश्म-ए-हक़-बीं में
काबा ओ दैर में जब वो बुत-ए-काफ़िर न मिला
उस के कूचे ही में आ निकलूँ हूँ जाऊँ जिस तरफ़
ब-तस्ख़ीर-बुताँ तस्बीह क्यूँ ज़ाहिद फिराते हैं
राएगाँ औक़ात खो कर हैफ़ खाना है अबस
ब-मअ'नी कुफ़्र से इस्लाम कब ख़ाली है ऐ ज़ाहिद
हम हवा-ए-वस्ल में याँ तक फिरे
ये दाढ़ी मोहतसिब ने दुख़्त-ए-रज़ के फाड़ खाने को
देखा जो कुछ जहाँ में कोई दम ये सब नहीं
ऐ बंदा-परवर इतना लाज़िम है क्या तकल्लुफ़