उस के कूचे ही में आ निकलूँ हूँ जाऊँ जिस तरफ़
मैं तो दीवाना हूँ अपने इस दिल-ए-गुमराह का
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ये दाढ़ी मोहतसिब ने दुख़्त-ए-रज़ के फाड़ खाने को
बुलबुल वो गुल है ख़्वाब में तू गा के मत जगा
शैख़ है तुझ को ही इंकार सनम मेरे से
यूँ घर से मोहब्बत के क्या भाग चले जाना
ऐ हम-नफ़स उस ज़ुल्फ़ के अफ़्साने को मत छेड़
दीवानगी के सिलसिला का होए जो मुरीद
मैं जीते-जी तलक रहूँ मरहून आप का
हम-दिगर मोमिन को है हर बज़्म में तकफ़ीर-ए-जंग
अश्क-बारी से ग़म-ओ-दर्द की खेती-बाड़ी
जब नशे में हम ने कुछ मीठे की ख़्वाहिश उस से की
'मुहिब' तुम बुत-परस्ती को न छोड़ो
दिल-ए-ख़िल्क़त-ए-ख़ुदा को सनमा जला न चंदाँ