तुम गाओ अपने राग को उस पास वाइ'ज़ो
मुश्ताक़ जो गधा हो तुम्हारे अलाप का
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का'बे में वही ख़ुद है वही दैर में है आप
रात आख़िर है यहाँ आया नज़र आसार-ए-सुब्ह
है मिरे पहलू में और मुझ को नज़र आता नहीं
'मुहिब' तुम बुत-परस्ती को न छोड़ो
ये दाढ़ी मोहतसिब ने दुख़्त-ए-रज़ के फाड़ खाने को
न तय एक रकअत की मंज़िल हुई
अरे ओ ख़ाना-आबाद इतनी ख़ूँ-रेज़ी ये क़त्ताली
ब-मअ'नी कुफ़्र से इस्लाम कब ख़ाली है ऐ ज़ाहिद
तिरे कलाम ने कैसा असर किया वाइ'ज़
दिलों का फ़र्श है वाँ पाँव रखने की कहाँ जागह
आना है तो आ जाओ यक आन मिरा साहब