रात आख़िर है यहाँ आया नज़र आसार-ए-सुब्ह
शम्अ की फीकी है लौ होंटों की है लाली है उदास
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हम हवा-ए-वस्ल में याँ तक फिरे
ब-तस्ख़ीर-बुताँ तस्बीह क्यूँ ज़ाहिद फिराते हैं
ये दाढ़ी मोहतसिब ने दुख़्त-ए-रज़ के फाड़ खाने को
मय-कदे में मस्त हैं और शोर उन का हाव-हू
है मिरे पहलू में और मुझ को नज़र आता नहीं
ग़ौर कर देखो तो ये इक तार का बिस्तार है
मिलती है उसे गौहर-ए-शब-ताब की मीरास
काश हम नाकाम भी काम आएँ तेरे इश्क़ में
ये बंदा हो या तुम हो वाँ ग़ैर न हो कोई
उस बुत ने गुलाबी जो उठा मुँह से लगाई
हर आन यास बढ़नी हर दम उमीद घटनी
मोहब्बत से तरीक़-ए-दोस्ती से चाह से माँगो