न तय एक रकअत की मंज़िल हुई
सफ़र शैख़-जी के वुज़ू ने किया
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Habib Jalib
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दिला ये मय-कदा-ए-इश्क़ है शराब तू पी
रक़ीब जम के ये बैठा कि हम उठे नाचार
वो जो लैला है मिरे दिल में सुने उस का जो शोर
काबा जाने की हवस शैख़ हमें भी है वले
न कीजे वो कि मियाँ जिस से दिल कोई हो मलूल
तमाम ख़ल्क़-ए-ख़ुदा ज़ेर-ए-आसमाँ की समेट
जो अपने जीते-जी को कुएँ में डुबोइए
आना है तो आ जाओ यक आन मिरा साहब
जब नशे में हम ने कुछ मीठे की ख़्वाहिश उस से की
लाला-रू तुम ग़ैर के पाले पड़े
शैख़ है तुझ को ही इंकार सनम मेरे से
काफ़िर हुए सनम हम दीं-दार तेरी ख़ातिर