रक़ीब जम के ये बैठा कि हम उठे नाचार
ये पत्थर अब न हटाए हटे है क्या कीजे
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मय-ए-गुल-गूँ के जो शीशे में परी रहती है
हर आन यास बढ़नी हर दम उमीद घटनी
सुख़न जिन के कि सूरत जूँ गुहर है बहर-ए-मअ'नी में
काफ़िर हुए सनम हम दीं-दार तेरी ख़ातिर
दिल-ए-ख़िल्क़त-ए-ख़ुदा को सनमा जला न चंदाँ
इस्लाम में ये कैसा इंकार कुफ़्र से है
सनम ने जब लब-ए-गौहर-फ़शान खोल दिए
मैं हूँ और साक़ी हो और हों रास ओ चुप ये वो बहम
हो जिस क़दर कि तुझ से ऐ पुर-जफ़ा जफ़ा कर
निकालूँ दिल से मैं नाले की किस तरह आवाज़
हम हवा-ए-वस्ल में याँ तक फिरे
मिल उस परी से क्या क्या हुआ दिल