मैं हूँ और साक़ी हो और हों रास ओ चुप ये वो बहम
जाम दस्त-ए-चुप के पास और शीशा दस्त-ए-रास पास
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मोहब्बत से तरीक़-ए-दोस्ती से चाह से माँगो
साथ ग़ैरों के है सदा गट-पट
शैख़ कहते हैं मुझे दैर न जा काबा चल
दिलों का फ़र्श है वाँ पाँव रखने की कहाँ जागह
पहचाने तू हर-दम वही हर आन वही है
अरे ओ ख़ाना-आबाद इतनी ख़ूँ-रेज़ी ये क़त्ताली
मिरे दिल में हिज्र के बाब हैं तुझे अब तलक वही नाज़ है
शब-ए-फ़िराक़ न काटे कटे है क्या कीजे
उस बुत ने गुलाबी जो उठा मुँह से लगाई
निकालूँ दिल से मैं नाले की किस तरह आवाज़
हमारी चाह साहब जानते हैं