निकालूँ दिल से मैं नाले की किस तरह आवाज़
तेरी निगह ने अजब सुर्मा-दान खोल दिए
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दिल-ए-ख़िल्क़त-ए-ख़ुदा को सनमा जला न चंदाँ
जिसे गर्म-इख़्तिलाती की लगा दे दिल में तू आतिश
हो जिस क़दर कि तुझ से ऐ पुर-जफ़ा जफ़ा कर
ग़ौर कर देखो तो ये इक तार का बिस्तार है
है मिरे पहलू में और मुझ को नज़र आता नहीं
जो मरीज़ इश्क़ के हैं उन को शिफ़ा है कि नहीं
दुनिया में क्या किसी से सरोकार है हमें
बुलबुल बजाए अपने तुझे हम-नवा से बहस
तरवार खींच हम को दिखाते हो जब न तब
मिल उस परी से क्या क्या हुआ दिल
ऐ दिल आता है चमन में वो शराबी तू पहुँच
इस ख़ानुमाँ-ख़राब को भी दे मियाँ बता