है मिरे पहलू में और मुझ को नज़र आता नहीं
उस परी का सेहर यारो कुछ कहा जाता नहीं
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कुछ न देखा किसी मकान में हम
शैख़ है तुझ को ही इंकार सनम मेरे से
शब-ए-फ़िराक़ न काटे कटे है क्या कीजे
देखता कुछ हूँ ध्यान में कुछ है
'मुहिब' तुम बुत-परस्ती को न छोड़ो
चराग़-ए-का'बा-ओ-दैर एक सा है चश्म-ए-हक़-बीं में
दिलों का फ़र्श है वाँ पाँव रखने की कहाँ जागह
बुलबुल वो गुल है ख़्वाब में तू गा के मत जगा
साक़ी हमें क़सम है तिरी चश्म-ए-मस्त की
हर घड़ी वहम में गुज़रे हैं नए अख़बारात
जो मरीज़ इश्क़ के हैं उन को शिफ़ा है कि नहीं
शोरिश से चश्म-ए-तर की ज़ि-बस ग़र्क़-ए-आब हूँ