हर घड़ी वहम में गुज़रे हैं नए अख़बारात
तिरे कूचे में गुमाँ अपना ये जासूस हुआ
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मैं जीते-जी तलक रहूँ मरहून आप का
शोरिश से चश्म-ए-तर की ज़ि-बस ग़र्क़-ए-आब हूँ
फ़स्ल ख़िज़ाँ में बाग़-ए-मज़ाहिब की की जो सैर
पहचाने तू हर-दम वही हर आन वही है
शोर रखते हैं जहाँ में जिस क़दर सब्ज़ान-ए-हिंद
देखता कुछ हूँ ध्यान में कुछ है
जब नशे में हम ने कुछ मीठे की ख़्वाहिश उस से की
ज़ाहिदा तू सोहबत-ए-रिंदाँ में आया है तो सुन
दिला ये मय-कदा-ए-इश्क़ है शराब तू पी
रक़ीब जम के ये बैठा कि हम उठे नाचार
मा'रके में इश्क़ के सर से गुज़रने से न डर
इस्लाम में ये कैसा इंकार कुफ़्र से है