इस्लाम में ये कैसा इंकार कुफ़्र से है
तस्बीह में पिरोए ज़ुन्नार है तअ'ज्जुब
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दिलों का फ़र्श है वाँ पाँव रखने की कहाँ जागह
जब नशे में हम ने कुछ मीठे की ख़्वाहिश उस से की
इन दो के सिवा कोई फ़लक से न हुआ पार
लाला-रू तुम ग़ैर के पाले पड़े
मैं जीते-जी तलक रहूँ मरहून आप का
पहले सफ़-ए-उश्शाक़ में मेरा ही लहू चाट
अश्क-बारी का मिरी आँखों ने ये बाँधा है झाड़
'मुहिब' तुम बुत-परस्ती को न छोड़ो
शब-ए-फ़िराक़ न काटे कटे है क्या कीजे
ऐ हम-दमाँ भुलाओ न तुम याद-ए-रफ़्तगाँ
मय-ए-गुल-गूँ के जो शीशे में परी रहती है
ऐ दिल आता है चमन में वो शराबी तू पहुँच