ज़ाहिदा तू सोहबत-ए-रिंदाँ में आया है तो सुन
तर्क गाली का न कर पगड़ी उतरने से न डर
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काबा ओ दैर में जब वो बुत-ए-काफ़िर न मिला
जौन से रस्ते वो हो निकले उधर पहरों तलक
ये दाढ़ी मोहतसिब ने दुख़्त-ए-रज़ के फाड़ खाने को
मा'रके में इश्क़ के सर से गुज़रने से न डर
देखता कुछ हूँ ध्यान में कुछ है
इन दो के सिवा कोई फ़लक से न हुआ पार
मिल उस परी से क्या क्या हुआ दिल
ब-तस्ख़ीर-बुताँ तस्बीह क्यूँ ज़ाहिद फिराते हैं
'मुहिब' तुम बुत-परस्ती को न छोड़ो
नक़्काश-ए-अज़ल ने तो सर-ए-काग़ज़-ए-बाद आह
हमारी चाह साहब जानते हैं
मय-ए-गुल-गूँ के जो शीशे में परी रहती है