शैख़ है तुझ को ही इंकार सनम मेरे से
वर्ना हर शख़्स को इक़रार है अल्लाह अल्लाह
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मय-कदे में मस्त हैं और शोर उन का हाव-हू
देखता कुछ हूँ ध्यान में कुछ है
साक़ी हमें क़सम है तिरी चश्म-ए-मस्त की
ब-मअ'नी कुफ़्र से इस्लाम कब ख़ाली है ऐ ज़ाहिद
ऐ बंदा-परवर इतना लाज़िम है क्या तकल्लुफ़
ग़ौर कर देखो तो ये इक तार का बिस्तार है
आना है तो आ जाओ यक आन मिरा साहब
मय-ए-गुल-गूँ के जो शीशे में परी रहती है
सनम ने जब लब-ए-गौहर-फ़शान खोल दिए
इश्क़ जब दख़्ल करे है दिल-ए-इंसाँ में 'मुहिब'
किया बाग़-ए-जहाँ में नाम उन का सर्व कह कह कर
काश हम नाकाम भी काम आएँ तेरे इश्क़ में