ब-मअ'नी कुफ़्र से इस्लाम कब ख़ाली है ऐ ज़ाहिद
निकल सुबहे से रिश्ता सूरत-ए-ज़ुन्नार हो पैदा
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काबा ओ दैर में जब वो बुत-ए-काफ़िर न मिला
मिरे दिल में हिज्र के बाब हैं तुझे अब तलक वही नाज़ है
मैं हूँ और साक़ी हो और हों रास ओ चुप ये वो बहम
तरवार खींच हम को दिखाते हो जब न तब
ये दाढ़ी मोहतसिब ने दुख़्त-ए-रज़ के फाड़ खाने को
सनम ने जब लब-ए-गौहर-फ़शान खोल दिए
मिलती है उसे गौहर-ए-शब-ताब की मीरास
जी चाहे का'बे जाओ जी चाहे बुत को पूजो
नक़्काश-ए-अज़ल ने तो सर-ए-काग़ज़-ए-बाद आह
हमारी चाह साहब जानते हैं
जो अपने जीते-जी को कुएँ में डुबोइए
फूलों की सेज दोस्त की ख़ातिर 'मुहिब' बिछाओ