अरे ओ ख़ाना-आबाद इतनी ख़ूँ-रेज़ी ये क़त्ताली
कि इक आशिक़ नहीं कूचा तिरा वीरान सूना है
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मिलती है उसे गौहर-ए-शब-ताब की मीरास
जब नशे में हम ने कुछ मीठे की ख़्वाहिश उस से की
हमारी चाह साहब जानते हैं
बुलबुल वो गुल है ख़्वाब में तू गा के मत जगा
ऐ दिल तुझे करनी है अगर इश्क़ से बैअ'त
इस ख़ानुमाँ-ख़राब को भी दे मियाँ बता
बे-इश्क़ जितनी ख़ल्क़ है इंसाँ की शक्ल में
तमाम ख़ल्क़-ए-ख़ुदा ज़ेर-ए-आसमाँ की समेट
काबा ओ दैर में जब वो बुत-ए-काफ़िर न मिला
लाला-रू तुम ग़ैर के पाले पड़े
ये दाढ़ी मोहतसिब ने दुख़्त-ए-रज़ के फाड़ खाने को
काश हम नाकाम भी काम आएँ तेरे इश्क़ में