बे-इश्क़ जितनी ख़ल्क़ है इंसाँ की शक्ल में
नज़रों में अहल-ए-दीद के आदम ये सब नहीं
Parveen Shakir
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Anwar Masood
Gulzar
Mir Taqi Mir
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इस्लाम में ये कैसा इंकार कुफ़्र से है
कुछ न देखा किसी मकान में हम
मिरे दिल में हिज्र के बाब हैं तुझे अब तलक वही नाज़ है
तुम गाओ अपने राग को उस पास वाइ'ज़ो
हम हवा-ए-वस्ल में याँ तक फिरे
काबा ओ दैर में जब वो बुत-ए-काफ़िर न मिला
है मिरे पहलू में और मुझ को नज़र आता नहीं
बुलबुल बजाए अपने तुझे हम-नवा से बहस
मिलती है उसे गौहर-ए-शब-ताब की मीरास
ऐ दिल आता है चमन में वो शराबी तू पहुँच
मोहब्बत से तरीक़-ए-दोस्ती से चाह से माँगो