रहीम ओ राम की सुमरन है शैख़ ओ हिन्दू को
दिल उस के नाम की रटना रटे है क्या कीजे
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हम हवा-ए-वस्ल में याँ तक फिरे
जो मरीज़ इश्क़ के हैं उन को शिफ़ा है कि नहीं
मेरी ख़बर न लेना ऐ यार है तअ'ज्जुब
ये जूँ जूँ वा'दे के दिन रात पड़ते जाते हैं
फ़स्ल ख़िज़ाँ में बाग़-ए-मज़ाहिब की की जो सैर
बुलबुल बजाए अपने तुझे हम-नवा से बहस
ख़त का ये जवाब आया कि क़ासिद गया जी से
दैर में का'बे में मयख़ाने में और मस्जिद में
राग अपना गा हमारा ज़िक्र मत कर ऐ रक़ीब
मय-कदे में मस्त हैं और शोर उन का हाव-हू
ब-मअ'नी कुफ़्र से इस्लाम कब ख़ाली है ऐ ज़ाहिद
ऐ हम-नफ़स उस ज़ुल्फ़ के अफ़्साने को मत छेड़