वो जो लैला है मिरे दिल में सुने उस का जो शोर
क़ैस निकले गोर से बाहर कफ़न को चीर-फाड़
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राग अपना गा हमारा ज़िक्र मत कर ऐ रक़ीब
सनम ने जब लब-ए-गौहर-फ़शान खोल दिए
दिला ये मय-कदा-ए-इश्क़ है शराब तू पी
ब-मअ'नी कुफ़्र से इस्लाम कब ख़ाली है ऐ ज़ाहिद
हम-दिगर मोमिन को है हर बज़्म में तकफ़ीर-ए-जंग
गिरते हैं दुख से तेरी जुदाई के वर्ना ख़ैर
तुम जानते हो किस लिए वो मुझ से गया लड़
मैं हूँ और साक़ी हो और हों रास ओ चुप ये वो बहम
जो अपने जीते-जी को कुएँ में डुबोइए
उधर वो बे-मुरव्वत बेवफ़ा बे-रहम क़ातिल है
जब नशे में हम ने कुछ मीठे की ख़्वाहिश उस से की
ये जूँ जूँ वा'दे के दिन रात पड़ते जाते हैं