दीं से पैदा कुफ़्र है और नूर शक्ल-ए-नार है
रिश्ता जब सुबहे से निकला सूरत-ए-ज़ुन्नार है
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शैख़ है तुझ को ही इंकार सनम मेरे से
काबा ओ दैर में जब वो बुत-ए-काफ़िर न मिला
ये बंदा हो या तुम हो वाँ ग़ैर न हो कोई
ये जूँ जूँ वा'दे के दिन रात पड़ते जाते हैं
दिला ये मय-कदा-ए-इश्क़ है शराब तू पी
अरे ओ ख़ाना-आबाद इतनी ख़ूँ-रेज़ी ये क़त्ताली
देखा जो कुछ जहाँ में कोई दम ये सब नहीं
तुम गाओ अपने राग को उस पास वाइ'ज़ो
इन दो के सिवा कोई फ़लक से न हुआ पार
दिल-ए-ख़िल्क़त-ए-ख़ुदा को सनमा जला न चंदाँ
दरिया-ए-मोहब्बत से 'मुहिब' ले ही के छोड़ी